देरी वाली व्यवस्था न्याय कैसे दिला सकती है?

 देरी का विश्व रिकॉर्ड बनाती भारतीय न्यायपालिका

राजस्थान के अजमेर में पिछले दिसंबर में एक गैंगरेप पीड़िता का गुस्सा पुराने, पीले पड़ चुके पोक्सो कोर्टरूम में फूट पड़ा। "आप मुझे बार-बार कोर्ट में क्यों बुला रहे हैं? 30 साल हो गए हैं,' उसने जज, वकीलों और कोर्ट में मौजूद आरोपियों पर चिल्लाते हुए कहा। "मैं अब दादी बन गई हूँ, मुझे अकेला छोड़ दो।'.............अदालत में सन्नाटा छा गया। ................................ “हमारे भी परिवार हैं। हम उन्हें क्या बताएं?" वह गुस्से से बोली।

Story By- Dr. Neeraj Meel


क्या न्याय में देरी अपने आप में नहीं बल्कि न्याय के अन्याय होने का पुख्ता सबूत नहीं है? न्याय में देरी का मतलब है कि किसी पीड़ित पक्ष को कानूनी समाधान या न्यायसंगत राहत उपलब्ध है, लेकिन समय पर नहीं मिलने से है। ऐसे में सवाल है कि क्या इसे 'न्याय से वंचित करने के समान' नहीं कहा जा सकता है? सच तो ये है कि न्याय में देरी होने से न्याय का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाता है। पीड़ित को जब तक न्याय मिलता है, तब तक उसे अत्यधिक आर्थिक और मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों के कारण मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे लोगों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है, और जेल को झेलते आये हैं जिससे उनके निजी और पेशेवर जीवन पर असर पड़ता है। जो लोग अंततः निर्दोष पाए जाते हैं, उनके लिए देरी से होने वाला नुकसान अपूरणीय हो सकता है जिसके लिए दुनिया की किसी भी न्याय व्यवस्था में पूर्ण करने की क्षमता ही नहीं होती।

अजमेर सेक्स स्कैंडल जो सन् 1992 में कारित हुआ था को लेकर हाल ही में 32 साल बाद अदालत का फैसला आया है। इस केस में आरोपी नफीस चिश्ती, नसीम उर्फ टार्जन जैसे 6 और हैवानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। ये मात्र एक बानगी है शेष कई अन्य फैसले हैं जिनमें काफी देरी हुई है और कई ऐसे मामलें हैं जिनमें बेवजह देरी हो रही है और कुछ तो ऐसे मामले हैं जिनके लिए यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि देरी की जा रही है। कुल मिलाकर दुनिया भर की अदालत और कानून की दुहाई और न्याय की बात करने वाली विश्व भर की न्याय व्यवस्थाओं में संभवतः हमारी अदालतें और न्यायपालिका देरी का विश्व रिकॉर्ड कायम कर रही है। ऐसे में एक सवाल यह भी उठना या उठाना वाजिब होगा कि क्या यही है हमारे संविधान और लोकतंत्र की कानून न्याय व्यवस्था जिसमें न्याय देने में 32 साल का समय लग जाता है?

लम्बित मामलों पर एक नज़र

1 मार्च 2024 तक सुप्रीम कोर्ट में 84,120 मामले लंबित थे। मार्च 2024 में कोर्ट ने 15 दिन काम किया और 3926 मामलों का निपटारा किया। इसका मतलब है कि कोर्ट का औसत निपटान प्रति कार्य दिवस लगभग 262 मामले था। इस प्रकार ये ख़बर लिखे जाने तक कोर्ट ने 77 दिन के कार्यदिवसों में अगर औसतन निपटारों के बाद की स्थिति देखें तो 27 अगस्त 2024 को नए केसों के अलावा 60 हज़ार से अधिक के मामलें लंबित हैं। इनमें 72 फीसदी सिविल मामले और 28 फीसदी फ़ौजदारी मामले हैं। वहीं मोटे आंकलन में देशभर की अदालतों में कुल लंबित मामलों की संख्या करीब 5.1 करोड़ से ज़्यादा है। इसमें से 87% से ज़्यादा मामले ज़िला अदालतों में हैं। इनमें से 50% मामले राज्य प्रायोजित हैं।

अन्याय के पीछे कारण

साल 2018 मेंनीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिकअदालतों में मामलों को तत्कालीन दर पर निपटाने में 324 साल से ज़्यादा समय लगेगा। सबसे बड़ा कारण जजों का स्थानीय न होना है  जबकि दिसंबर 2023 तकभारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर सिर्फ़ 21 जज थे। उच्च और निचली अदालतों में नियुक्ति में देरी की वजह से न्यायिक अधिकारियों की कमी हो गई है अर्थात अदालतों में अपर्याप्त संसाधन और अवसंरचना विद्यमान है। इसके अलावा प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ (2006) मामले में न्यायालय ने अन्वेषण कार्य को विधि और व्यवस्था से अलग करने का आदेश दिया थालेकिन ऐसा नहीं हो पाया जो स्पष्ट तौर पर पुलिस के राजनीतिकरण का ही सबूत है। इसके अलावा न्यायालयों में जजों के लंबे अवकाश की प्रथा हैजो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है। साथ ही न्यायिक मामलों के संदर्भ में वकीलों द्वारा किया जाने वाला विलंब भी एक चिंतनीय विषय है।

मामलों पर भारी पड़ते सवाल

सबसे बड़ा तो यही सवाल है कि क्या यह मामला  देश की न्याय व्यवस्था की लेट लतीफी और अभियोजन की नाकामी के साथ न्यायव्यवस्था में न्याय को ढोंग साबित नहीं करता? सनद रहे, यह वही न्याय व्यवस्था है जो नृशंसता भरे निठारी कांड के अभियुक्तों को सत्रह साल की लम्बी सुनवाई के बाद बरी कर देती है। इस काण्ड में देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी में कम से कम 19 युवतियों और बच्चों के साथ बलात्कार कर उनकी हत्या करदी गई और उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। इतना ही नहीं इस कांड के पीछे अंग व्यापार का रैकेट भी सामने आया था। 

मामले बहुत है जिनका ज़िक्र कर पाना शायद ही संभव हो। इन हालातों में सभी का एक सवाल हो सकता है कि आखिर कार देश की बच्चियों और महिलाओं को यौन विकृत राक्षसों से कौन और कैसे बचाएगा? 




                               हमेशा शर्मसार करने वाली घटना... 

आज वैश्विक पटल पर राजस्थान का अजमेर जिला ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह और पुष्कर मंदिर की वजह से पूरी दुनिया में जितना जाना जाता है उतना ही इस शहर की आबोहवा में साल 1990 से 1992 तक जो कुछ हुआ उसके लिए जाना जाता है। यह सच है कि अजमेर काण्ड न केवल भारतीय संस्कृति को कलंकित करने वाला था, बल्कि अजमेर के सामाजिक ताने-बाने को दागनुमा बन गया।  गौर करें तो एक स्थानीय दैनिक अखबार में उस वक्त एक ऐसा समाचार छपा जिसकी शायद ही किसी ने कोई कल्पना तक ही की होगी। उस वक्त इस ख़बर ने खुलासा करते हुए सबको झकझोर कर रख दिया था। ख़बर के मुताबिक़ स्कूली छात्राओं को उनकी अश्लील तस्वीरों के जरिए ब्लैकमेल करते हुए उनका यौन शोषण किए जाने का पर्दाफाश किया गया था।’ "बड़े लोगों की पुत्रियां ब्लैकमेल का शिकार" शीर्षक से प्रकाशित खबर ने पाठकों के हाथों में अखबार पहुंचने के साथ ही एक सुनामी जैसा माहौल ज़ेहन में ला दिया। नेता, पुलिस, प्रशासन, सरकार, सामाजिक, धार्मिक आम और ख़ास सब तरह के लोग सहम गए। सबके दिमाग में कई तरह के सवाल खड़े होने लगे कि यह क्या हो गया? कैसे हो गया? कौन आहत हुआ है? किसके साथ घटित हुआ? आदि।

मामला यही नहीं थमा, इसके बाद मीडिया में इसके बाद खुलासा हुआ कि एक ख़ास लोगों का गिरोह जो अजमेर के बड़े नाम वाले गर्ल्स स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों को अपने फार्म हाउसों पर बुला-बुलाकर रेप करता रहा और सबसे बड़ी बात इसकी भनक तक लड़कियों के घर वालों को नहीं लगी। रेप की गई लड़कियों में बड़े अधिकारियों की बेटियां भी शामिल थी। हालांकि इस मामले में सामाजिकता पूर्णत: नदारद रही अर्थात समाज के उसूलों से बाहर। इस पूरे कांड को अश्लील तस्वीरों की आड़ में लड़कियों को ब्लैकमेल करके अंजाम दिया गया था। संख्या की बात की जाए तो पीड़ित लड़कियों की संख्या 100 से अधिक आंकी  गई थी।

इस घटना के एक पहलू और अपुष्ट एवं हवाई जानकारी के मुताबिक़ इस कांड की शुरुआत में सबसे पहले एक शख्स जो राजनीतिक रसूख वाला था ने एक नामी स्कूल की एक लड़की से प्यार का नाटक खेला और जाल में फंसाया।

थोड़े दिनों बाद लड़की का विश्वास जीतकर उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किया और इसी दौरान उसने उसकी अश्लील तस्वीरें खींच ली। उसके बाद वह शख्स इन अश्लील तस्वीरों के जरिए उस लड़की को यूज़ करने लगा, ब्लैकमेल करने लगा। इसी कड़ी में उस लडकी से स्कूल की दूसरी लड़कियों को बहला-फुसला कर लाने के लिए हुक्म फरमाने लगा। मजबूरन वो लड़की भी अपनी दूसरी सहेलियों को भी फार्म हाउस ले जाने लगी। उन सभी के साथ रेप हुआ और ब्लैकमेल का खेल होता रहा। एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, इस तरह एक ही स्कूल की करीब 100 से ज्यादा लड़कियों के साथ रेप हुआ। अनुसंधान में सामने आया कि घर वालों की नजरों के सामने ही ये लड़कियां फॉर्म हाउस पर जाती, उनको लेने के लिए बाकायदा गाड़ियां आती और वापस घर पर छोड़कर भी जाती थी। लड़कियों की रेप करते समय तस्वीर ले ली जाती थीं। जिनका इस्तेमाल बाद में डराने-धमकाने में कर और लड़कियों को बुलाने में किया जाता। स्कूल की इन लड़कियों के साथ रेप करने में नेता, पुलिस, अधिकारी भी शामिल थे। रेप करने वालों के पास राजनीतिक और धार्मिक दोनों ही तरह की शक्तियां थीं। आरोप तो यह भी है कि इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि इस कांड के बारे में जानकारी होते हुए भी पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही थी।

कुछ ही समय बाद लड़कियों की अश्लील तस्वीरें हवा में तैरने लगी। जिस कारण ये लड़किया रेप करने का खिलौना बन गई थी। मामलें की परकाष्ठा यह रही कि नेगेटिव से फोटो को डेवलप करने वाला टेक्नीशियन भी इसमें शामिल हो गया था। लोग लड़कियों के रिश्ते करते वक्त अव्वल तो उस स्कूल में पढ़ी हुई होने के कारण ही सगाई तक नहीं कर रहे थे। इस कृत्य से समाज में अपनी बेइज्जती होती देख लड़कियां को इससे बाहर निकलने का रास्ता जिंदगी को खत्म करना ही समझ आ रहा था जिसके चलते इस काण्ड की शिकार लड़किया एक-एक कर खुदकुशी करने लगी। इस तरह लापरवाही ने परिवार, पुलिस और प्रशासन तक को पंगु बना दिया था। लड़कियों की खुदकुशी के बाद मामला इतना ज्यादा बड़ा पाठ्य वस्तु पाठकों के लिए हो गया कि एक दैनिक समाचार पत्र के एक पत्रकार ने तो इस मामले में सीरीज वाइज खबरों को छापना शुरू कर दिया था।


आखिरकार हरकत में आई सरकार

लगातार अखबार में छपती खबरों ने पुलिस और प्रशासन पर दबाव बना दिया जिसके बाद राज्य की तत्कालीन भैरोंसिंह शेखावत सरकार ने इस मामले की जांच सीआईडी सीबी को सौंपनी पड़ी थी। और काण्ड की पीड़िताओं से आरोपियों की पहचान कराई गई। इस मामले नें 30 नवंबर 1992 को अजमेर कोर्ट में पहली चार्जशीट दाखिल हुई जिसमें 18 आरोपियों के नाम सामने आये थे। मामले में पहला रुझान आया 1994 में, जब आरोपी पुरुषोत्तम जमानत पर बाहर आया और उसने आत्महत्या कर ली जिसके साथ कुछ राज राज ही रह गए। इसके बाद दिनांक 18 मई 1998 को फास्ट्रेक कोर्ट ने अपना पहला फैसला सुनाया जिसमें सभी आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुना दी गई। मामला आगे बढ़ा और  20 जुलाई 2001 को हाई कोर्ट ने एक अलग ही फैसला सुनाया, जिसमें 4 आरोपियों को बरी कर दिया गया। लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 2 साल बाद 19 दिसम्बर 2003 को सुप्रीम कोर्ट ने 4 दोषियों की उम्रकैद को दस साल की सजा में तब्दील कर दिया। 20 अगस्त 2024 को स्पेशल पॉक्सो एक्ट कोर्ट (जिला अदालत) ने छह दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है। मामले में आरोपी जहूर चिश्ती पर अभी फैसला लंबित है। अब इस मामले में बड़ा सवाल तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट तक जाते जाते लोग निर्दोष किस तरह साबित हो गए? 

मामले में चुनौतियां

1992 में हुवे इस कांड के बाद पुलिस के लिए भी काम चुनौतीपूर्ण रहा जिसमें आरोपियों को सामने लाना और सबूतों को सहेजकर रखना बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि पीड़िताओं ने समाज में बदनामी और दुष्कर्मियों के खौफ की वजह से अपना घर और शहर तक छोड़ दिया था और बतौर सबूत जमा किया गया सामान मसलन बिस्तर और कंडोम इत्यादि बदबू मारने लगे थे। फिलहाल अभियोजन विभाग के अब से पहले करीब 12 अभियोजक बदल चुके हैं।

गवाह का  सुझाव:

जहाँ इस कांड में 100 से ज्यादा स्कूली छात्राओं को दरिंदों ने अपना शिकार बनाया, लेकिन अभियोजन पक्ष और पुलिस सिर्फ 16 पीड़िताओं को ही गवाही के लिए तैयार कर सकी हैं। आखिरी कुछ गवाही के बाद इनमें से भी 13 पीड़िताओं ने तो कोर्ट में अपने बयान बदल भी दिए। ऐसे में यह भी सामने आया कि अदालत ने पीड़िताओं के पुराने बयानों के आधार पर कार्रवाई की। ये आंकड़े भी बड़े सवाल खड़े करते हैं। शोध का विषय है जो उपेक्षित है। उम्मीद है शोध कार्य होंगे।

 

लिखित कानून का सीधा उपयोग सिर्फ अपने चहेते गुलाम वर्ग को प्रोमोट करने और विरोधी नापसंद वर्ग को कठिनतम सजा देने के लिए किया जाता है। कानून वही होता है जो किसी समाज में आम सहमति के नियम मान्य होते है वहा के समाज में उसके सिवा सब धक्काशाही है। आम नागरिकों को सिर्फ़ अपने लोकल रीति रिवाज और समाज के अनूकुल न्यायिक प्रणाली ही न्याय दे सकती है। पेचीदा शब्दावली से कभी न्याय नहीं होते लूट खशोट ओर चोर उच्चक्को को पनपने का माहोल या मिट्टी तैयार होती है।साफ़ है आँख बंद करके या पट्टी बांधकर न्याय करने का एक अर्थ बिना कुछ देखे ही न्याय की बात करना भी होता है। 

स्थानीय ज्यूडिशरी में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है तो स्थानीय पंचायत ही न्याय का आधार बनती है अर्थात स्थानीय  संप्रभुता होनी चाहिए। किसी भी भौगौलिक स्थिति में सामाजिक व्यवस्था ही महत्वपूर्ण होती है। आज फिर से जरूरत है स्थानीय लोगो को जोड़ने वाले, विवाद की स्थिति में समझौता करने वाले और संधर्ष की स्थिति में साथ खड़े होने की परंपरा पुनर्स्थापित करने की। अर्थात् आज पुनः स्थानीय मामलों में पुराने पंचायत सिस्टम को स्थापित करने की आवश्यकता है। यह सिस्टम न्याय ही नही देता है बल्कि वर्तमान न्यायिक समस्याओ से निजात भी दिला सकता है। 

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Image Courtesy: The Print

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